Tuesday 28 April 2015

खौफ़

25 अप्रैल 2015, यह तारीख नेपाल के सीने पर एक गहरा ज़ख्म छोड़ गई है। यूँ प्रकृत्ति का ऐसा रूप हमने पहली बार नही देखा है। जब भी कहीं ऐसी कोई आपदा आती है तो हमारे सारे पुराने घावों को ताज़ा कर जाती है। अब चाहे वो भूकम्प हो, बाढ़ हो या फिर सुनामी। हम मनुष्य यूँ तो चाँद तक पहुँचने का दम रखते हैं लेकिन प्रकृत्ति के सामने हम आज भी बौने ही हैं। हम चाहे ब्रह्माण्ड के सभी उलझे रहस्यों को क्यूँ ना सुलझा आयें लेकिन फिर भी हम प्रकृत्ति की ताकत के आगे कमज़ोर ही रह जाते हैं।
मनुष्य जितनी भी ऊँची उड़ान क्यूँ ना भर ले लेकिन इस तरह की कोई ना कोई आपदा कभी ना कभी उसके पंखों को चीर डालती है। 25 अप्रैल को हर रोज़ की तरह मैं स्कूल में ही थी। जिस वक़्त भूकम्प के झटके आये मैं अपनी दसवीं कक्षा को गणित पढ़ा रही थी। मैं और मेरे विद्यार्थी अपने टॉपिक में इतने तल्लीन थे कि ज़मीन यानि कि ग्राउंड फ्लोर पर होने के बावज़ूद भी हमें कुछ भी महसूस नही हुआ। जैसे ही मेरी कक्षा समाप्त हुई और मैं अपनी कक्षा के साथ वाले कमरे में गई, जो कि हमारा स्टाफ रूम भी है, तो मेरे सहकर्मियों ने मुझसे पूछा,"मंजीत मेम आपको पता नही चला भूकम्प आया?" "नही तो, मुझे तो महसूस ही नही हुआ, और ना ही बच्चों को पता लगा।"मैंने उत्तर दिया। तभी मुझे लगा कि क्यूँ ना अपना फ़ोन चेक कर लूँ शायद पापा की कॉल आई होगी, और देखा तो पापा की तीन कॉल्स थी। मैंने पापा को फ़ोन किया तो उन्होंने बताया कि बहुत तेज़ झटका था और करीब सवा मिनट तक वो खौफ़ में रहे। हम हमेशा से फर्स्ट फ्लोर या ग्राउंड फ्लोर पर रहे हैं, अभी पिछले साल अप्रैल में हम एक तेरह मंज़िली ईमारत में आये हैं। और हमारा फ्लैट तेरहवीं मंज़िल पर ही है। मैंने पापा के फ़ोन के बाद अपना व्हाट्स ऐप चेक किया, वहाँ मेरी बहन ने भी कुछ मेसेज छोड़े हुए थे। घर जा कर जब मैंने समाचारों में देखा तो मैं दंग रह गई। अगले दिन रविवार के कारण मेरी छुट्टी थी और मैं घर के कुछ काम निपटाने में लगी थी कि तभी मेरी बहन चिल्लाई,"मंजीत फिर भूकम्प आया है।" मुझे महसूस हुआ और मैंने पंखों और टी.वी. को हिलता देखा, हमने भाग कर फ़ोन और चाबी उठाई, मम्मी को पकड़ा और सीढ़ियों की ओर भागे, ऐसी हालत में लिफ्ट का प्रयोग ना ही करें तो अच्छा है। आप विश्वास नही करेंगे तेरहवीं मंज़िल से दसवीं तक जाने में मेरे पैर बुरी तरह काँप चुके थे। कल से मेरी बहन बार-बार कहे जा रही थी कि उसने सबकी आँखों में मौत का खौफ़ देखा है लेकिन क्यूँकि मुझे कुछ महसूस नही हुआ था तो मैं उसकी बातों को मजाक में ही टाल रही थी। लेकिन 26 अप्रैल को कुछ सेकण्ड में ही मैं इतना डर गई थी कि मुझे लगा अब सब खत्म। मुझे सबसे ज़्यादा चिंता मम्मी की थी क्यूँकि हम भाग सकते थे सीढ़ियों पर, लेकिन माँ के लिये ये मुमकिन ना था। तभी एक अंकल बोले,"बेटा अब कुछ नही है, कोई झटका नही है, रुक जाओ।" तब जा कर मेरी साँस में साँस आई। मेरी बहन मेरी हालत देख कर बोली,"डर लगा या नही?" और वाकई मैं इतना डर गई थी कि तब तक भी मेरे पैर काँप रहे थे।

मैं परसों से सोच रही हूँ कि सिर्फ़ कुछ झटकों में मेरा ये हाल हो गया तो उन लोगों की क्या हालत हुई होगी जिनके घर और ईमारतें ताश के पत्तों की तरह ढह गए हैं? मौत के खौफ़ ने मुझे इतना डरा दिया तो मौत को सामने देख किसी का क्या हाल हुआ होगा? कहते हैं,"जा के पैर ना फ़टे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई?" पर उन कुछ लम्हों ने मुझे इस बात का एहसास तो करवा ही दिया कि खुद की और अपने अपनों की जान जब ऐसे अचानक मौत की कगार पर खड़ी हो तो इंसान कैसा महसूस करता है।

पता नही मैं किसी पीड़ित के लिए कुछ कर पाऊँगी या नही, लेकिन मैं अपनी ये पोस्ट उन सभी लोगों के नाम करती हूँ जिन्होंने कभी ना कभी अपनी ज़िन्दगी में किसी ना किसी त्रासदी को झेला है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि आप सभी को इतनी हिम्मत और ताकत दे कि आप अपने दुखों से बाहर आयें और ज़िंदगी को फिर से एक मौका दें।

क्यूँकि,
"ज़िंदगी रुकने का नही, चलने का नाम है,
ज़िन्दगी थकने का नही, बढ़ने का नाम है...!"

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