Thursday 29 January 2015

आँखें भर आती हैं मेरी भी

नंगे बदन, रोटी को तरसते,
भीगी आँखें लिये बिलखते।
फूल से मुरझाते बचपन को देख,
आँखें भर आती हैं मेरी भी।।

एक वक़्त की रोटी के लिये मरते,
परिवार की सलामती के लिये डरते।
मायूस, मज़बूर उस बाप को देख,
आँखें भर आती हैं मेरी भी।।

जवान बेटे पे खुद को बोझ समझके,
बाँटती दर्द, पति की तस्वीर से लिपट के।
लाचार, बेबस उस बूढ़ी माँ को देख,
आँखें भर आती हैं मेरी भी।।

Sunday 25 January 2015

किस्मत

हाथों की लकीरों में है,
या फिर माथे की।
है बीते कल में छिपी,
या आने वाले कल में है लिखी।
ये है भी कुछ,
या कुछ है ही नही।
इन्सान की कल्पना है बस,
या ये है हकीकत कोई।
बनाया है इसने हमें,
या हमने है ये बनाई।
कभी लगा है हाथ में ही है हमारे,
कभी समझ में ही ना आई।
सो गई किसी की,
तो किसी ने जगाई,
बनाने वाले ने देखो यारों,
'किस्मत' भी क्या चीज़ बनाई।

Friday 23 January 2015

ज़िन्दा तेरे बाद भी हैं...

तुझसे पहले भी जी ही रहे थे,
ज़िन्दा तेरे बाद भी हैं।
तेरे आने से पहले भी थे अकेले,
तन्हा तो हम आज भी हैं।
हम ना ख़ास तेरे आने से पहले ही थे,
अभी भी तो आम ही हैं।
आँखें तेरे इंतज़ार में कल भी थीं,
आज भी ये बेकरार ही हैं।
एहसास पहले भी हुआ करते थे,
ज़ज़्बात दिल में कहीं आज भी हैं।
धड़कता था दिल पहले भी सीने में,
धड़कनें अब भी बजाती साज़ ही हैं।
ख़्याल बिखरे रहते थे कल भी मेरे,
सजे वो आँखों में बनके ख़्वाब ही हैं।
बहुत अलग थे हम तेरे आने से पहले,
बहुत अलग तेरे जाने के बाद भी हैं।

Tuesday 20 January 2015

I wished...I wanted...

Somethings i wished to achieve,
somethings i wanted to believe...
Sometimes i wished to fly,
sometimes i wanted to cry...
Someday i wished to dream,
someday i wanted to scream...
Somewhere i wished to stay,
somewhere i wanted to run away...
Someone i wished to meet,
someone i wanted to leave...
Somehow i wished to feel,
somehow i wanted to heal...

Tuesday 13 January 2015

ये खामोशियाँ

दर्द हो या हो कोई ग़म,
हो लबों पे हँसी या हो आँखें नम,
ज़ख्म भीतर हो या कि हो बाहर,
छिपाया गया हो या हो ज़ाहिर,
सब कुछ ज़ुबाँ से कैसे कहें,
पर ना कहें, तो क्या करें,
कोशिशें भी ज़रूरी हैं,
सबकी अपनी मज़बूरी है,
जज़्बातों को दिखाना भी है,
दर्द को छिपाना भी है,
सब कुछ कहना भी है,
पर चुप रहना भी है,
पर कोई फिर भी समझ लेगा,
और कोई फिर भी पढ़ लेगा,
इन खामोश-सी बातों को,
इन अनकही-सी आँखों को,
कुछ ना कह कर भी देखना,
बहुत कुछ कह देंगी एक दिन,
ये खामोशियाँ.....................

Sunday 11 January 2015

मानव कहाँ? ये तो है दानव।

रुधिर ही रुधिर,
फैला पड़ा चहुँ ओर है,
कतरे-कतरे से फैले हैं,
मानो मानव नही, कोर हैं,
हैं खबरों में छप रहे,
हैं सुर्खियाँ ये बन रहे,
लाशों के ढेरों पर मानो,
मापेंगे हिमाला चलो,
ना बच्चे, ना बड़े,
इनकी राहों में जो खड़े,
कर दिए जायेंगे कलम,
जितने भी सिर दिख रहे,
थामे बंदूकें हाथों में,
रोंधता मानवता लातों से,
है कैसा कहो ये मानव,
मानव कहाँ? ये तो है दानव।

Saturday 10 January 2015

उम्मीद

घिर जाता है,
बिखर जाता है,
टूट के जुड़ता नही है,
गिर के सम्भलता नही है,
ना कोई आस ही,
ना कोई पास ही,
मुश्किलें जब आती हैं,
आती हैं हर ओर से,
इंसान का विश्वास,
जुड़ा है एक रेशमी डोर से,
खिंच जाती है जो एक बार,
तो हो जाती है तार-तार,
बस,
यही होता है वो लम्हा,
जिसमें सम्भला तो सम्भला,
और बह गया तो बह गया,
मिल जाये एक राह कहीं,
दिख जाये जो किरण उम्मीद की,
तो शायद,
वो बिखरेगा नही,
टूटेगा नही,
सम्भल जायेगा वो,
उभर जायेगा वो,
और बेशक,
गिर कर उठ जायेगा वो।

लिखने बैठे...तो सोचा...

लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...