Wednesday 30 July 2014

दिल

"दिल मासूम है
इससे शिकवा नही
चाह बैठा तो चाह बैठा
चुन बैठा तो चुन बैठा
इसकी आदत नही
मोल-भाव की
इश्क करता है ये
व्यापार नही
ये जो जानता कि
इश्क में दर्द ही होगा
तो कहिये
क्यूँ आख़िर फिर ये
शौंक-ए-इश्क पालता...!"

Sunday 27 July 2014

क्यूँकि वक़्त की बिसात पर...सिर्फ़ मोहरे हैं हम...


क्या हस्ती है,
क्या हैसियत है,
आख़िर हैं ही क्या हम?
कहिये तो वक़्त से कब,
और कहाँ लड़ सके हैं हम?

कब इसे रोका,
कब थाम पाये हैं,
आख़िर कर क्या सके हैं हम?
इस वक़्त से जीते कब,
या कब इसे हरा पाये हैं हम?

कौन हुआ है ऐसा,
क्या वो कर सका है,
आख़िर किसमें है इतना दम?
जो बढ़ जाए आगे,
या बढ़ा ले इससे आगे कदम?

ये कल भी सच था,
ये आज भी सच है,
आख़िर बदलेंगे भी कैसे इसे हम?
क्यूँकि वक़्त की बिसात पर,
सिर्फ़ मोहरे हैं हम।

Thursday 24 July 2014

हर दिल में अरमाँ होते तो हैं...बस कोई...समझे ज़रा...

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम दिल में बहुत कुछ दबाये घूमते रहते हैं, कभी दर्द, कभी खुशी, कभी कोई ख्वाहिश तो कभी कोई अरमान। यूँ तो सभी पास होते हैं हमारे लेकिन फिर भी जाने क्यूँ, या तो कोई समझ नही पाता है या फिर शायद झाँक नही पाता है हमारे दिल में। और हम एक बोझ सा लिये घूमते रहते हैं अपने दिल पे।

ज़िन्दगी है चलती रहती है, हमें आदत भी हो जाती है। या यूँ कहिये कि शायद हम ढल जाते हैं अपनी ज़िन्दगी में। सोचते हैं कि शायद ये ऐसा ही है, ऐसा ही रहेगा, ना बदला है और ना शायद बदलने वाला है। ऐसा नही है कि ये ऐसे हालात हैं जिनसे हम निकल नही सकते। हाँ ये है कि शायद अकेले नही निकल सकते। कोई ऐसा एक ज़रूर होता है जो पता नही कैसे मगर झाँक लेता है हमारे दिल में, और पता नही कैसे पर बिना हमारे कुछ कहे, वो समझ जाता है सब कुछ।

इस रिश्ते को इश्क की नज़र से मत देखिये। हो सकता है कि वो इंसान, वो शख्स जो आपके बिन कहे, आपकी हर बात समझ जाये, वो सिर्फ एक दोस्त हो, या फिर कोई ऐसा इंसान जिसे आप सिर्फ जानते भर हों, या पहचानते भर हों। पर ऐसा कोई होता है और ज़रूर होता है। अब चाहे आप उसे पहचान पायें या नही पर वो कहीं ना कहीं और कभी ना कभी आपको, आपके दिल को और उसके ज़ज्बातों को पहचान जाता है, वो भी आपके बिना कोई ईशारा दिये।

आप कहेंगे ज़रूरी तो नही कि हर किसी को ऐसा शख्स मिल ही जाये। मैं कहूँगी यकीन मानिये हम सभी की ज़िन्दगी में ऐसा कोई एक ज़रूर आता है जो हमें, हमसे ज्यादा और हमसे पहले समझ जाता है। अब चाहे वो कोई दोस्त हो, कोई अपना हो या फिर कोई अजनबी। और शायद वो एक शख्स हमें हमारे दिल पर रखे उस बोझ से मुक्त करवा देता है। वो बिना हमारे कहे, हमारी हर बात को सुन लेता है, वो बिना हमारे दिखाये, हमारे हर दर्द, हर ख़ुशी को देख लेता है। वो जान लेता है कि हम कब खुश हैं और कब दुखी। हमारी आँखों का हर सच और हर झूठ वो देख लेता है, जान लेता है। जाने कैसे पर वो एक इंसान शायद हमें, हमसे भी ज्यादा और बेहतर जान लेता है।

ऐसा एक इंसान कहीं ना कहीं है और हर किसी के लिए है। बस इंतज़ार है तो उसके मिलने का, उसके दिखने का। बस इंतज़ार है तो उसका हमें और हमारे अरमानों को समझने का। और जब तक आप उससे टकराते नही हैं और वो आप तक पहुँचता नही है, ज़िन्दगी के रेडियो पर इस धुन, इस गाने को बजाते रहिये-
"हर दिल में अरमाँ होते तो हैं...बस कोई...समझे ज़रा...!"

Wednesday 23 July 2014

उसने कागज़ों पर


ना कहना आसान रहा होगा,
तभी उसने लिखा होगा।
अपने अरमानों को रूप कोई,
नया-सा फिर दिया होगा,
उसने कागज़ों पर।।

कुछ कही होगी अपनी,
कुछ औरों की लिखी होगी।
कुछ कहानियों में ढाला होगा,
कुछ कविताओं में समेटा होगा,
उसने कागज़ों पर।।

दुनिया ने फिर पढ़ा होगा,
उसे याद फिर किया होगा।
वो मर कर भी ना मरा होगा,
ज़िन्दा खुद को रखा होगा,
उसने कागज़ों पर।।

Sunday 20 July 2014

आख़िर मैं क्या ढूँढती हूँ?

पानी की बूँदों में तो,
कभी ओंस के मोतियों में,
उमड़ते बादलों में तो,
कभी बहती हवाओं में,
आख़िर मैं क्या ढूँढती हूँ?

अजनबी चेहरों में तो,
कभी अपनों के बीच में,
हाथों की लकीर में तो,
कभी अपनी तकदीर में,
आख़िर मैं क्या ढूँढती हूँ?

दुनिया की इस भीड़ में तो,
कभी अपनी तन्हाई में,
जवान-सी महफ़िल में तो,
कभी अपने अकेलेपन में,
आख़िर मैं क्या ढूँढती हूँ?

शब्दों के इस जाल में तो,
कभी अपने दिल के हाल में,
कागज़ों के जंजाल में तो,
कभी उलझे हुए हर सवाल में,
आख़िर मैं क्या ढूँढती हूँ?

Saturday 19 July 2014

'इश्क'


'इश्क' इस एक लफ्ज़ ने दुनिया को दीवाना बना रखा है। जाने क्यूँ और कैसे पर सारी ही दुनिया पागल सी है इश्क के लिए। किसी को किसी चेहरे से इश्क है, किसी को किसी की अदाओं से, किसी को किसी की बातों से तो किसी को किसी की यादों से, किसी को खुद से तो किसी को किसी अजनबी से। यूँ समझ लीजिये जैसे इश्क हर कहीं, हर जगह, हर समय मौजूद है।

ऐसा नही है कि मुझसे पहले किसी ने इश्क पर कुछ लिखा नही है और आपने भी कभी इश्क को पढ़ा नही है। बल्कि मुझे तो लगता है कि शायद इश्क ही इकलौता ऐसा शब्द है इस दुनिया में, जिस पर बहुत कुछ लिखा गया है और जिसे बहुत पढ़ा गया है। फिर मैं क्या नया लिखने वाली हूँ?

सच कहूँ? तो कुछ भी नया सा ना मैं लिखने वाली हूँ, ना आप कुछ नया सा पढ़ने वाले हैं। यूँ समझ लीजिये कि बस वही पुरानी शराब है, हाँ पर बोतल ज़रूर नई है। अब देखना ये है कि क्या आप इसका लुत्फ़ उठा पाते हैं या नही।

मैं कोई बहुत महान लेखिका नही हूँ, पर हाँ हर ज़ज्बात को शब्दों में उतारने की एक बुरी सी आदत है मुझे। फिर 'इश्क' जैसे शब्द पर कुछ ना लिखूँ, ऐसा कैसे हो सकता है। मैं कुछ भी लिखने से पहले आपसे पूछना चाहूँगी कि आपकी नजर में इश्क क्या है? पहली नज़र का आकर्षण, या कोई लगाव, या किसी की ओर झुकाव या फिर खिंचाव? सोचिये एक बार अपने मन में फिर आगे पढ़िएगा।

मुझे उम्मीद है आपने इश्क की कोई परिभाषा ज़रूर सोच ली है। चलिए आपकी नजर में इश्क जो भी है पर अगर वो ऐसा है तो क्यूँ है? क्या उसकी वजह आपको किसी से इश्क हुआ है या था, ये है। शायद हाँ, या शायद नही। मैं यहाँ कोई परिभाषा या अर्थ ना देते हुए सिर्फ इतना लिख रही हूँ कि हर इंसान की नजर में इश्क की अपनी एक परिभाषा है। किसी के लिए महज आकर्षण भी इश्क है और किसी के लिए आकर्षण इश्क नही सिर्फ आकर्षण है। मतलब आपका नज़रिया ही इश्क का अर्थ बनाता है।

अब आप कहेंगे कि मैंने तो कुछ बताया ही नही इश्क के बारे में। ऐसा नही है। मैंने वो लिखा है जो आप पढ़ना चाहते थे। नही समझे? इश्क की आपकी अपनी एक परिभाषा है और आप मेरे शब्दों में यकीनन उसी परिभाषा को ढूँढ रहे थे। देखिये वो आपको मिल ही गई है। मैंने ऊपर लिखा भी है कि इश्क आपकी अपनी नज़र में एक अलग परिभाष लिए है। मैं इस तरह आपका मन नही रख रही हूँ बल्कि एक बात को सामने ला रही हूँ कि 'इश्क' यूँ तो एक ही शब्द है, पर इसकी परिभाषायें अलग-अलग और इसके लिए नजरिये भी अलग-अलग ही हैं। पर एक सच जो हमेशा इसके साथ जुड़ा है, वो ये कि इश्क हर कहीं, हर जगह, हर समय रहता है।

इन पंक्तियों के साथ विराम दे रही हूँ-
"इश्क जो है,
जैसा है,
जहाँ है।
मेरे यार,
तू जहाँ है,
ये वहाँ है...!"

Wednesday 16 July 2014

"वो पहली बारिश की बूँदें"

छम से जो गिरती
गालों पे मेरे
भिगो देती मुझे भीतर तक
वो पहली बारिश की बूँदें।

सौंधी सी उठती महक
सूखी उस मिट्टी से
जिसकी छाती पर पड़ती
वो पहली बारिश की बूँदें।

शीशे की खिड़कियों पर
टप-टप ढुलकती,
फिर सर सी फिसलती
वो पहली बारिश की बूँदें।

बिछड़ों की बढ़ाती बेताबी
मिला के किसी को
उनकी शाम बनाती गुलाबी
वो पहली बारिश की बूँदें।

जिसके इंतज़ार में रहे ज़मीं सारी
जिसे बरसाता आसमां जी भर कर
जो बुझाती प्यास हर 'मन' की
वो पहली बारिश की बूँदें।

Tuesday 15 July 2014

उड़ता परिंदा

कभी सोचा है आपने कि कैसे इस दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में हम इतने उलझ जाते हैं कि खुद से ठीक से मिल भी नही पाते हैं। बस रोज़ अपनी ज़रूरतों की गठरी को अपने सिर पर लाद कर निकल पड़ते हैं उन्हे पूरा करने। हर रोज़ एक ही सवाल कि क्या हासिल किया कल और क्या रह गया। हमारा हाल अब कुछ ऐसा हो गया है जैसे कोई परिंदा है जिसके यूँ तो पंख भी हैं पर अपने पंखों का इस्तेमाल वो अब सिर्फ अपनी ज़रूरतें पूरी करने में करता है। वो जो कभी अपने पंखों के दम पर आसमान को चीर कर निकल जाने का हौंसला रखता था, आज अपने उन्ही पंखों को उसने अपनी ज़रूरत का साधन मात्र बना कर छोड़ दिया है।
क्या लगता है आपको? मेरा ईशारा किस ओर है। क्या अपनी ज़रूरतों को पूरा करना कोई गुनाह है? क्या ख्वाब देखना, आरज़ू करना कोई गलती है? माफ़ कीजिये मैंने ऐसा तो बिल्कुल भी नही लिखा है। मैं बस ये लिख रही हूँ कि हम परिंदे तो हैं पर उड़ते परिंदे नही। कभी आसमान में स्वच्छन्द उड़ते किसी परिंदे को देखिये और कभी दाने की तलाश में भटकते किसी परिंदे को। दोनों की स्तिथि कितनी अलग है। एक जो आसमान में आज़ाद उड़ रहा है और एक जो बंधा है अपनी ज़रूरतों से।  मैं ये नही कह रही हूँ कि ज़रूरतें पूरी करने के लिये कुछ मत कीजिये, बस उड़ते रहिये। यूँ तो आप भी जानते हैं कि ज़िन्दगी को चलाना मुश्किल हो जायेगा। फिर क्या किया जाए?
हमारी ज़िन्दगी की हर बात एक संतुलन पर टिकी होती है। यहाँ तक कि प्रकृत्ति भी एक संतुलन पर ही हर काम करती है। बस यही संतुलन है जिसे आपको बनाये रखना है। याद रखिये आप इंसान हैं, कोई मशीन नही। आप एक ऐसा परिंदा हैं जिसके पास पंख भी हैं और आसमान को चीर कर उड़ जाने का हौंसला भी। ज़रूरत है तो बस खुद को ये याद दिलाने की कि इस परिंदे को कभी-कभी दाना चुगने के अलावा खुद के लिए भी उड़ना है।
मैं नही जानती कि आप मेरे इन शब्दों का क्या अर्थ लेते हैं। लेकिन अगर मैं साधारण शब्दों में आपको ये समझाना चाहूँ कि मैं क्या लिखना चाहती हूँ तो वो बस यही है कि हर रोज़ की भाग-दौड़ में से थोड़ा वक़्त कभी अपने लिए और अपने अपनों के लिए भी निकालिये।


कसम से ज़िन्दगी गुलज़ार हो जायेगी देखिएगा...।

Thursday 10 July 2014

"It costs a lot"

Sometimes you keep working and concentrating on something which actually isn't that much important. And when you realise this, it has been too late. You once had it as your dream so you began embracing it. You fed it with your thoughts. You loved it like a beloved or a lover. You gave every single breath of yours to it. But, yet you couldn't get it. You lost your dream, your lover, your life. And were left shattered and broken.Well, this is the time when you realised that it cost a lot.
Though you got it too late, but, finally, you have seen the reality. Which ofcourse is not beautiful. Now, what next? This is the question which should strike your mind. But, practically, what happens is that you get stuck to that broken dream or we can say that unfulfilled wish. Well, ofcourse, i am not an exception here. We are humans. It is in our nature. We can never forget our unfulfilled dreams or wishes. We are habitual to it. But why we behave so? Why can't we simply move on? Why can't we just come out of this self made prison? The answers to all these questions whether known or unknown, lie within us.
It's we, who dream, it's we, who wish. Then, why should we stop dreaming and wishing? Just because we couldn't fulfill one dream or got one wish unfulfilled. Well, frankly speaking, this is not fair. If you think it cost a lot for the previous dream, then let me clear it is gonna cost you a lot for another dream too. And my friends, life is worth taking risks.
वो कहते हैं ना-
"ज़िन्दगी कोई फूलों की सेज नही,
कि लगाया बिस्तर और सो गए.
मेरे यार इन राहों पर काँटे मिलेंगे भी,
और चुभेंगे भी...!"
No matter, how much it costs. You have to keep dreaming. You have to keep wishing. Rest is future. Let us not destroy the charm of a tomorrow.

Tuesday 8 July 2014

माफ़ कीजिये...पर मैं नमक नही...!

अगर इस शीर्षक को पढ़ कर आपको थोड़ा अजीब लग रहा है तो माफ़ कीजिये आप बिल्कुल भी गलत नही हैं. पर हाँ थोड़ा सब्र रखिये, फिर आप जान ही जायेंगे कि आख़िर मैंने ऐसा शीर्षक रखा ही क्यूँ? नमक, रोजमर्रा के हमारे मसालों में से एक मसाला, लेकिन शायद सबसे ज़रूरी वाला. आख़िर क्या ख़ास है इसमें ऐसा, आख़िर क्यूँ ये इतना महत्त्वपूर्ण है?
कभी सोचा है आपने कि नमक ही एक ऐसा मसाला है जो आसानी से घुल जाया करता है वो भी हर चीज़ में. अपना रंग, अपनी पहचान सब खो देता है, जिसमें मिलाया उस जैसा हो गया. है ना कितना ख़ास ये मसाला. और फिर ये सिर्फ मसाला भी तो नही, प्रकृत्ति ने जाने और क्या-क्या काम सौंप रखे हैं इसे. पर मेरा इरादा यहाँ उन सब बातों का ज़िक्र करना कतई नही है.
मैं नमक की बात क्यूँ कर रही हूँ? आखिर क्यूँ मैं नमक नही. जरा सोचिये एक बार, नमक आसानी से घुल जाता है, बिना कुछ कहे, बिना कोई शिकायत किये. क्या आप ऐसे हैं? आपके आस-पास के जो हालात हैं, जो लोग हैं आपके आस-पास, क्या आप उन हालातों, उन लोगों के बीच घुल गए हैं? क्या आप वो हो गए हैं जैसा वो आपको चाहते हैं, क्या आप अपना अस्तित्त्व खो चुके हैं? जरा सोचिये एक बार. कोशिश कीजिये खुद को नमक जैसा ना होने देने की. नमक एक मसाला है, और शायद इसके अलावा भी इसके कई रूप, कई काम हैं, लेकिन क्या हम महज़ एक मसाला हैं? नही ना?
ज़रूरी नही कि आपके विचार मेरे विचारों से मेल खायें. लेकिन हाँ, एक बात तो हम सभी जानते हैं कि हम मनुष्य ईश्वर की बनाई हुई सभी कृतियों में शायद सबसे बेहतर ही हैं. और अगर ऐसा है तो हमें कोई हक नही उस ईश्वरकी कला का निरादर करने का. आपका हालातों से समझौता करना, और किसी के सामने अपने स्वाभिमान को गिरवी रखना ठीक वैसे ही होगा जैसा कि नमक का किसी द्रव्य में घुल कर खुद को खो देना. वैसे ये ज़रूरी नही कि इसे आप एक अवगुण की तरह ही देखें. सोचिये एक बार कि आप सबसे घुल मिल कर रहते हैं बिल्कुल नमक की तरह, तो ये एक गुण है ना कि अवगुण. लेकिन आज जिस युग में हम जी रहे हैं, वहाँ ऐसा होना थोड़ा नामुमकिन सा लगता है. कलयुग कहिये, या घोर कलयुग, इस युग में नमक हो जाना शायद आपके स्वाभिमान के लिए हानिकारक हो सकता है. इसीलिए माफ़ कीजिये...पर मैं नमक नही...!

Sunday 6 July 2014

'यूँ ही कहीं किसी मोड़ पर'

ज़िन्दगी चल रही थी रफ़्तार से अपनी,
उलझती हुई, उलझाती हुई.
हम भी इस सफ़र में गुम से थे,
फिर अचानक मिले कुछ लोग,
यूँ ही कहीं किसी मोड़ पर.

चले साथ वो उन राहों पर कुछ वक़्त तक,
हमसफ़र हुए कुछ देर के लिए ही सही.
कभी थके, तो कभी बढ़े साथ हम,
जुदा हुए तो आँखें हुई नम, जब छोड़ गए वो,
यूँ ही कहीं किसी मोड़ पर.

हम फिर बढ़ चले, अपने सफ़र पर,
ना मुड़े, ना रुके कभी, कहीं.
सफ़र जारी रहा, ज़िन्दगी चलती गई,
जानते हैं फिर मिलेंगे कुछ नए से चेहरे हमें,
यूँ ही कहीं किसी मोड़ पर.

'मन की कलम से'

कुछ शब्द झड़ते हैं
कागजों को भरते हैं.
जाने बेअसर रहेंगे,
या कोई असर करते हैं?
महकते हैं पन्नों पर इत्र से,
कुछ शब्द मन की कलम से.

लिख देने भर को नही,
कह देने भर को नही.
पढ़ लेने भर को नही,
सुन लेने भर को नही.
बरसते हैं जो झर-झर से,
कुछ शब्द मन की कलम से.

मन की कहते हैं,
मन से बताते हैं.
मन की सुनते हैं,
मन से सुनाते हैं.
उमड़ते हैं जो मन के भीतर से,
कुछ शब्द मन की कलम से.

Hope you will keep reading me...!

Well, i have been considering since last 2/3 years to start a blog. Don't know why, but couldn't gather enough courage to move the first step. And then i joined twitter. I would love to thank all my followers there, who encouraged me a lot, its you guys, who had given me the strength to give a concrete shape to my ideas, which would, otherwise, have been lost.
Well, to pen down one's thoughts is not that much easy as it seems. You can write whatever comes in your mind. But what is the point, if you haven't got a single reader? That's what really matters. I don't wanna say one who is not read, isn't a good writer. Infact, (s)he can be the best player of words. But it's also true that a writer or an artist crave for appreciation and this appreciation actually encourages her/him. Don't wanna let you feel bored, so summarizing my first post with this little message,"You people, you readers, make a person a writer or an artist. We are actually nothing without you guys.""

Hope you will keep reading me...!

लिखने बैठे...तो सोचा...

लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...